ब्रजमोहन अग्रवाल जी ने जब राजिम को कुंभ का नाम देने के विषय मे सोचा होगा तो शायद उनके मन मे इसे राजनीति का कुंभ बनाने का विचार आया या नही होगा यह तो वे ही जाने पर धार्मिक उन्माद पैदा कर इससे वोट बटोरने और गुजरात की तरह छत्तीसगढ मे भी माहौल बनाने का प्रयास करने वाले राजनीतिक अखाडे के खिलाडी के रुप मे भाजपा के पुर्व सासंद और वेदांती भले ही अपने को संत माने पर आचरण उनका एकदम विपरीत रहा है। मै इस बात की निंदा अवश्य करुंगा कि उन्होने सोनिया जी के साथ साथ प्रधानमंत्री और राज्यपालो के विषय मे अर्नगल बाते कही, पर सवाल यह है कि क्या यह सब प्रायोजित था, क्या राजिम की पवित्र भुमि को चुना जाना वो भी पवित्र कार्यक्रम मे महज एक संयोग था, जब की उनके और भी कार्यक्रम थे? क्या सिर्फ माफी मांगकर या खेद व्यक्त कर विवाद का पटाक्षेप करना उचित है? क्या कलेक्टर और अन्य पुलिस अधिकारीयो की सुरक्षा मे एक अपराधी कॊ राज्य की सीमा पार कराना उचित था? तमाम बाते है जिनका जिक्र किया तो जा सकता है पर उनका अब अर्थ क्या? आज तक हमने यही सुना है कि साधु संतो के मुख मे भगवान की वाणी बसती है, पर वेदांती के मुख से जो कुछ निकला उससे तो यही लगता है कि या तो हमे पढाने लिखाने वाले गलत थे या फिर साधु संतो के वेश मे असमाजिक तत्व अपनी राजनीति की दुकान चला रहे है, इसके लिये जिम्मेदार कौन है यह बहस का विषय हो सकता है पर आज उन लोगो को सोचना होगा जो बात तो राजनीति मे अच्छे, पढे लिखे लोगो को लाने कि और ना जाने कितनी बडी बडी बाते करते है, पर टिकिट देने मे वेंदाती जैसे तथाकथित समाज सेवको को देते है?
Sunday, March 23, 2008
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