केन्द्र की युपीए सरकार ने अनुसूचित जनजाति और अन्य पारम्परिक वनवासी (वनवासी अधिकारों को मान्यता) अधिनियम, 2006 को 2 जनवरी, 2007 का अधिनियमित किया गया है, जिससे कि अभ्यारण्यों और राष्ट्रीय उद्यानों सहित वन भूमि में वन अधिकारों और व्यवसाय को उन लोगों को अधिकार और मान्यता दी जा सके जो अनुसूचित जनजाति के वनवासी हैं और पारम्परिक वनवासी हैं जोकि पीढिंयों से ऐसे वनों में पहले से निवास कर रहे हैं लेकिन जिनके अधिकारों और इस प्रकार से विहित वन अधिनियम को रिकार्ड करने के लिए एक फ्रेमवर्क प्रदान करने और वन भूमि के प्रबंध में ऐसी मान्यता और अधिकारों के लिए अपेक्षित साक्ष्य की प्रकृति को अभिलिखित नहीं किया जा सका था । इस अधिनियम के तहत नियमों को 1 जनवरी, 2008 से अधिसूचित किया गया है । अधिनियम के अनुसार, वन भूमि के संबंध में वनवासी अनुसूचित जनजातियों और अन्य पारम्परिक वनवासियों के वन अधिकारों को मान्यता देना और प्रदान करना इस शर्त पर होगा कि ऐसी अनुसूचित जनजातियां अथवा जनजाति समुदाय अथवा अन्य पारम्परिक वनवासी दिसम्बर, 2005 के 13वें दिन से पहले वन भूमि पर अधिग्रहित थे, जिसमें पारम्परिक वनवासी से अभिप्राय है कोई सदस्य अथवा समुदाय जिसकी दिसम्बर, 2005 के 13वें दिन से पहले कम से कम तीन पीढियां मुख्यत: वनों में रह रही थी और जो वन अथवा वन भूमि पर वास्तविक जीवनयापन आवश्यकताओं के लिए निर्भर करते हैं ।
छत्तीसगढ की भाजपा सरकार ने आज तक केन्द्र सरकार के उक्त अधिनियम के पालनार्थ कोई विशेष रुचि नही दिखाई है, अधिनियम के प्रावधानो का ठीक तरह से प्रचार प्रसार नही किया गया है। छत्तीसगढ राज्य विशेष मे इस अधिनियम के पालन से वास्तविक आदिवासियो को इसका लाभ मिल पायेगा इस मे संदेह है, दरअसल सलवा जुडुम के नाम पर आदिवासियो को कुछ वर्षो पुर्व उनके मुल स्थानो से हटाकर सडको के किनारे राहत शिविरो मे शिफ्ट कर दिया गया है, गांव के गांव खाली करा दिये गये, भोले भाले आदिवासी जिनके पुर्वज वनो से आज तक बाहर नही निकले, जिनके जीवन व्यापन का प्रमुख साधन ही वन रहे है और जो आज भी वस्तु विनिमय द्वारा ही लेनदेन करते है ऎसे भोले भाले आदिवासियो, जिन्हे ध्यान मे रखकर ही उक्त विधियेक पारित किया गया आज इसके लाभ से वंचित रह जाये तो गलत होगा। सलवा जुडुम के नाम पर आदिवासियो को कितनी कुर्बानीया देनी पडी सर्वविदित है राज्य सरकार इन आदिवासियो को तो सुरक्षा प्रदान करने मे तो अक्षम रही है परन्तु दुसरी ओर बडी कंपनियो को वहा उपक्रम लगाने पर पुर्ण सुरक्षा की ग्यारंटी दे रही है । कांग्रेस के महासचिव श्री राहुल गांधी ने हाल ही मे अपने बस्तर दौरे के दौरान कहा था की औधोगिकरण होना चाहिये पर संस्क्रति के दाम पर नही, म.प्र. के पुर्व दिवंगत मुख्यमंत्री पं. श्यामाचरण शुक्ल ने भी एक समय इन्ही बातो को कहा था, पर अब तो आदिवासी, वनवासियो को जमीन का अधिकार देने के लिये कानुनी प्रावधान किये गये है अत: आज की परिस्थिती मे राज्य की भाजपा सरकार की कमजोर इच्छा शक्ति और चुनावी वर्ष मे नफा नुकसान को देखते हुये भाजपा की राज्य सरकार छत्तीसगढ मे वनवासी आदिवासियो को उनका हक देने मे कोई दिलचस्पी लेगी इसमे सदेंह ही है। कांग्रेस के महासचिव श्री राहुल गांधी के आदिवासी अंचलो के दौरो से भी राज्य सरकार चिंतित है इन सब बातो को ध्यान दे तो राज्य मे कांग्रेस पदाधिकारियो की जिम्मेदारी काफी बढ जाती है । राज्य सरकार पर दबाव बढाकर वनवासी आदिवासी परिवारो को उनका हक दिलाने के लिये कांग्रेस को अग्रणी भुमिका निभानी होगी और इस कार्य मे देरी के क्या परिणम होगे यह भी सोचना होगा।
Wednesday, May 7, 2008
वनवासी अधिकारों को मान्यता
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